21 मई 2011

अखबार की कद्र नहीं, खुद को पत्रकार बताती है..


21 मई 2011 शनिवार की सुबह तपती गर्मी से कुछ राहत देने वाली थी। कुछ देर की धुल भरी आंधी के बाद हल्की बारिश ने मौसम को सुहाना बना दिया था। हर दिन की तरह मैं दोपहर करीब एक बजे अपने दफ्तर पहुंचा। आपको बता दूं कि मैं एक पत्रकार हूं। मौसम सुहाना था लिहाजा काम शुरू करने से पहले मन किया कि चाय की चुस्की का लुत्फ क्यों ना लिया जाए। अक्सर बाकी काम के दिनों में लंच के वक्त ही चाय पीने का मौका करीब 4 से 5 बजे के बीच ही मिलता है। लेकिन शनिवार होने की वजह से काम का बोझ थोड़ा हल्का भी था। चाय पीने के लिए मैं अपनी टीम के एक सहयोगी के साथ दफ्तर के बाहर चाय वाले के पास जा धमका। चाय वाले के सामने एक अच्छी खासी जगह है जहां बैठकर दो चार मिनट पत्रकारगण बतिया लेते हैं। वहीं पर हम भी जा पहुंचे। सामने ऑफिस के ही कुछ मित्र भी मौजूद थे। उनमें एक महिला पत्रकार भी थी (अभी नई हैं लेकिन ख्वाब उंचे पाल रखें है) साथ ही अनुभव के मामले में भी मुझसे कुछ कम ही है। दिन की शुरूआत हुई थी लिहाजा मित्रों से हाथ मिलाया और एक दूसरे का हाल-चाल भी लिया। अचानक मेरी निगाह महिला पत्रकार पर पड़ी जोकि खुद को धुल मिट्टी से बचाने के लिए एक समाचार पत्र को बिछोना बनाकर बैठी थी। एक पत्रकार होने के नाते मुझे थोड़ा अजीब लगा। और अचानक मेरे मुंह से निकल पड़ा मित्र आपने ये क्या कर रखा है। समाचार पत्र हमारी रोजी रोटी है, हमें अपनी कलम को इस तरह शर्मसार नहीं करना चाहिए। जिस पत्र के साथ हमारे दिन की शुरूआत होती है। जिसके सहारे हम जिंदगी के ढेरों ख्वाब संजोए हुए हैं। उसकी बेकद्री न कीजिए। मुझे पूरी उम्मीद थी कि इस नवेली पत्रकार पर जरूर कुछ असर होगा और वो अपनी इस हरकत के लिए शर्मिंदगी महसूस करेगी। लेकिन अफसोस की मेरी सोच..मेरा विचार गलत था। क्योंकि हुआ इससे बिल्कुल उलट। इस पत्रकार मित्र ने ये कहकर और भी चौंका दिया कि वो दफ्तर से इस पेपर को महज इसलिए लेकर आई थी ताकि इसे अपना बिछौना बना सके। मैं ये सब सुनकर भौंचक्का रह गया। आगे कुछ बोलता या फिर वहां मौजूद कोई मित्र प्रतिक्रिया देता। उससे पहले ही मैडम ने जवाब दिया, कि अगर ये सब आप नहीं देख सकते तो अपनी नजरें क्यों नहीं फेर लेते। ज्यादा ही परेशानी है तो फिर कहीं और जाकर बैठ जाएं। बस फिर क्या था, बिना वक्त गंवाए मैं अपने सहयोगी के साथ दूसरे कोने में जाकर बैठ गया और कुछ देर में चाय वाला चाय लेकर आ गया। चाय की चुस्की के साथ बुदबुदाते हुए। दफ्तर वापस आ गया। मुझे लगा कि उस मुद्दे पर किसी के साथ चर्चा करने से बेहतर है कि मैं अपनी सारी कहानी कलम के सहारे उकेर दूं। और मैने वही किया। एक पत्रकार होने के नाते मेरे अब तक के अनुभव और कार्यकाल का ये दिन शायद सबसे दुखद था। जब एक मोहतरमा ओछी सोच के साथ एक सफल और जुझारू पत्रकार बनने का सपना देखती है। कुछ लोग इसे नॉर्मल बात भी समझ सकते हैं..लेकिन जिसकी आत्मा तक में पत्रकारिता बसती हो भला कैसे बर्दाश्त कर सकता है। कहने और करने के लिए तो मैं इस मुद्दे को हवा भी दे सकता था। लेकिन ये सब मेरी फितरत में नहीं है।

2 टिप्‍पणियां:

ANIL,,,,,,,,,, ने कहा…

ये सोच तो दुरुस्त है मेरे दोस्त लेकिन ऊँची सेंडल पहने वालों का दिमाग भी जरा ऊँचा होता है, आज पत्रकारिता पेशा बन गया है यहाँ अब लोग अपना धर्म निभाने नहीं बल्कि स्वाद चखने आते है, अब ये industry हो गई है दोस्त, जहाँ इन सब चीजो की कद्र विचारों मे भी नहीं बची , मुझे लगता हैं की अगर ऐसा ही रहा तो जैसे देश की आजादी के लिए संघर्ष करना पड़ा था वैसे ही पत्रकारिता को बचाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ेगा क्योंकि अब पत्रकारिता की ताकत रिपोर्टे नहीं बचा, इस की ताकत वो लोग बन rhe है जो चमकीले जुते पहन kr AC मे बैठते है
,,,,,,,,,,,,ANIL...........

PRAMOD ने कहा…

जो मन में पत्रकार का सपना लिये AC कार से उतर कर घर में भी AC में रहना पंसद करता हो..वो क्या जाने अखबार की कीमत...गलती से फिल्ड में आ गयी होगी...