04 मई 2010
सजा ए मौत या फिर सजा ए जिदंगी
कसाब को फांसी की सजा.. सजा ए मौत या फिर सजा ए जिदंगी। ये ऐसा सवाल है जो मुझे उस वक्त से कचोट रहा है जब मुंबई हमले के आरोप में गिरफ्तार जिंदा आंतकी अजमल आमिर कसाब को गिरफ्तार किया गया। शुरूआत में तो यही था क्या कसाब दोषी साबित होगा। खैर 17 महीने बाद कसाब को मुंबई का मुजरिम तो करार दे दिया गया। मुंबई की विशेष अदालत ने सोमवार को जैसे ही कसाब को दोषी करार दिया.. और सजा का एलान अगले दिन यानी मंगलवार को सुनाने को कहा। उस वक्त शायद ही कोई भारतीय हो जिसे फांसी से कम सजा कसाब के लिए मंजूर हो। लेकिन क्या कसाब को फांसी की सजा देना उसके लिए नई जिदंगी देने के बराबर नही है। क्या 166 लोगों के खून से हाथ रंगने वाले कसाब के लिए फांसी की सजा कुछ कम नही है। शायद आप सोचते हो कि कानून की नजर में इससे बड़ी सजा और हो भी क्या सकती है। जरा पल भर के लिए सोचकर देखिए.. 10 आतंकियों ने किस तरह से हमारे अपनों का खून बहाया.. क्या उस वक्त उन आतंकियों के हाथ कांपे। यहां बीते दिनों की वो बात याद आती है जब दादी जी तकरीबन 75 की उम्र पार कर चुकी थी.. चलने फिरने की हिम्मत होती नही थी.. ना ठीक से खा सकती थी.. ना ही चल सकती थी। हां शाम के वक्त हमें कई कहानी हर रोज सुनाती थी। तबीयत जब ज्यादा खराब रहने लगी तो कहानी सुनाने का दौर भी बंद हो गया। फिर तो हर दिन भगवान से एक ही गुजारिश करती.. ये भगवान मुझे उठा ले। दादी जी के लिए ये ऐसा वक्त था जब वो जिदंगी नही मौत चाहती थी। शायद ऐसे में उनके लिए मौत नई जिदंगी के बराबर थी। अब कसाब पर आरोप साबित हो चुके है। अदालत कसाब को फांसी की सजा सुनाए.. ज्यादातर देशवासी भी यही चाहते है। लेकिन कसाब दादी मां की तरह इस हालात में तो नही पहुंचा है... फिर उसे फांसी पर लटकाने से क्या फायदा। उसे तो तिल तिल कर मरना चाहिए.. ताकि 166 लोगों के परिवारों को इंसाफ मिल सके। कसाब की वो हालत होनी चाहिए कि बेगुनाहों का खून बहाने से पहले आतंकी एक बार नही सौ बार सोचें।
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