08 मई 2010

हमें जल्लाद बनना है

मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी तालिम देकर एक कामयाब इनसान बनते देखना चाहते हैं। लेकिन राजधानी दिल्ली में एक परिवार ऐसा भी है जो अपने दोनों लड़कों को जल्लाद बनाना चाहता है। इसके लिए बाकायदा दोनों भाई सरकार में कई साल पहले अर्जी लगा चुके हैं। परिवार की इच्छा है कि आतंकी कसाब की गर्दन में फांसी का फंदा वे ही डाले। सुरेन्द्र और जितेन्द्र डॉक्टर, टीचर या फिर इंजीनियर बनना नही चाहते। इनकी चाहत है जल्लाद बनने की। ऐसा नही है कि ये इनका पुश्तैनी पेशा है। इनके पिता डीटीसी से रिटायर हैं, तो खुद ये भी दिल्ली होम गॉर्ड में तैनात है। फिर भी इनकी दिली तमन्ना है कि दोनों जल्लाद बने। इसके लिए दोनों भाई जल्लाद की नौकरी पाने की सालों से जद्दोजहद में लगे हुए है। इस बारे में एसडीएम, एलजी और राष्ट्रपति तक को चिट्ठी लिख चुके है। जल्लाद बनने का जुनून सुरेन्द्र और जितेन्द्र को पिछले दस साल से है। लेकिन इसके लिए दोनों ने साल 2003 तीन में प्रक्रिया शुरू की। सुरेन्द्र इस सिलसिले में सोनिया गांधी से भी मिले। उसके बाद चिट्ठियों को दौर शुरू हुआ। हालांकि अभी तक दोनों को जल्लाद की नौकरी नही मिल सकी है। लेकिन कसाब को फांसी की सजा का एलान होते ही इनकी सोई तमन्ना एक बार फिर जाग गई है। दोनों भाइयों की इच्छा है कि उन्हें कसाब को फांसी पर लटकाने का अवसर मिले। दोनों भाइयों का जुनून आपको भले ही अजीब लगे लेकिन सुरेन्द्र और जितेन्द्र के परिवार वाले उनकी ख्वाहिश पूरी करना चाहते है। परिवार को लगता है कि देश के गुनाहगार को फांसी पर लटकाने से पीड़ित परिवारों को सुकुन मिलेगा। अपने हाथों से कसाब को फांसी को अपना सौभाग्य मानते है। आंकडो पर नजर डाले तो पिछले देश में केवल 2 जल्लाद ही है। वहीं महाराष्ट्र में पिछले दस साल के कोई भी जल्लाद नही है। ऐसे में सुरेन्द्र और जितेन्द्र की जल्लाद बनने की चाहत रखते है।

04 मई 2010

सजा ए मौत या फिर सजा ए जिदंगी

कसाब को फांसी की सजा.. सजा ए मौत या फिर सजा ए जिदंगी। ये ऐसा सवाल है जो मुझे उस वक्त से कचोट रहा है जब मुंबई हमले के आरोप में गिरफ्तार जिंदा आंतकी अजमल आमिर कसाब को गिरफ्तार किया गया। शुरूआत में तो यही था क्या कसाब दोषी साबित होगा। खैर 17 महीने बाद कसाब को मुंबई का मुजरिम तो करार दे दिया गया। मुंबई की विशेष अदालत ने सोमवार को जैसे ही कसाब को दोषी करार दिया.. और सजा का एलान अगले दिन यानी मंगलवार को सुनाने को कहा। उस वक्त शायद ही कोई भारतीय हो जिसे फांसी से कम सजा कसाब के लिए मंजूर हो। लेकिन क्या कसाब को फांसी की सजा देना उसके लिए नई जिदंगी देने के बराबर नही है। क्या 166 लोगों के खून से हाथ रंगने वाले कसाब के लिए फांसी की सजा कुछ कम नही है। शायद आप सोचते हो कि कानून की नजर में इससे बड़ी सजा और हो भी क्या सकती है। जरा पल भर के लिए सोचकर देखिए.. 10 आतंकियों ने किस तरह से हमारे अपनों का खून बहाया.. क्या उस वक्त उन आतंकियों के हाथ कांपे। यहां बीते दिनों की वो बात याद आती है जब दादी जी तकरीबन 75 की उम्र पार कर चुकी थी.. चलने फिरने की हिम्मत होती नही थी.. ना ठीक से खा सकती थी.. ना ही चल सकती थी। हां शाम के वक्त हमें कई कहानी हर रोज सुनाती थी। तबीयत जब ज्यादा खराब रहने लगी तो कहानी सुनाने का दौर भी बंद हो गया। फिर तो हर दिन भगवान से एक ही गुजारिश करती.. ये भगवान मुझे उठा ले। दादी जी के लिए ये ऐसा वक्त था जब वो जिदंगी नही मौत चाहती थी। शायद ऐसे में उनके लिए मौत नई जिदंगी के बराबर थी। अब कसाब पर आरोप साबित हो चुके है। अदालत कसाब को फांसी की सजा सुनाए.. ज्यादातर देशवासी भी यही चाहते है। लेकिन कसाब दादी मां की तरह इस हालात में तो नही पहुंचा है... फिर उसे फांसी पर लटकाने से क्या फायदा। उसे तो तिल तिल कर मरना चाहिए.. ताकि 166 लोगों के परिवारों को इंसाफ मिल सके। कसाब की वो हालत होनी चाहिए कि बेगुनाहों का खून बहाने से पहले आतंकी एक बार नही सौ बार सोचें।